फिर से वही सपना.. फिर से आँख खुली, और खुद को उसी मोड़ पर पाया। चार दिन बीते हो या चार महीने, उस दर्द का एहसास आज भी वही था जो उस दिन बस में बैठ कर आँखों से झलक रहा था।
सोच कर फिर से पलंग पर बैठ गयी मैं और खुद से पुछा, क्या कर रही थी मैं अपने साथ। किस तरह से जी रही थी। क्या यही अरमान खुद के लिए संजोये थे? क्या यही मंजिल खुद के लिए चुनी थी? क्या यही रुकना चाहती थी मैं?
जहाँ एक तरफ अपने आप से हार चुकी थी, वहीँ दूसरी तरफ झुकना नहीं चाहती थी। जहाँ एक तरफ दिल टूट चुका था, वहीँ उसे संभालना भी चाहती थी। जहाँ एक तरफ वो जा चुका था, वहीँ उसके पास भी जाना चाहती थी। क्या करू, शायद इस बार आगे नहीं बढ़ना चाहती थी, शायद इस बार यही मेरी कहानी थी। यही शुरुवात, यही अंतिम किस्सा था मेरी किताब का।
पर इस किताब को लिख कौन रहा था? मैं या मेरा खुदा ? इस कहानी के पात्र काल्पनिक नहीं व्यक्तिगत थे। इस कहानी के किस्से लिखे नहीं जिए गए थे। हर एक आंसू सच में बहा था, हर एक हँसी खुल के सुनाई दी थी। हर एक बार हाथ पकड़ने से धड़कन बढ़ी थी, सिर्फ पढ़ने वाले की नहीं, पर जीने वाले की भी। फिर इस कहानी का अंत खुशनुमा होना गवारा क्यों नहीं था? इस में दिल टूटने का दर्द भी तो महसूस हुआ था।
पर अब फिर से करवट पलटी, तो ये सोचा। अगले किस्से का तो पता नहीं, पर ये वक़्त बहुत एहम है। टूटे दिल का तो पता नहीं, उसके आगे के पन्ने पर लफ्ज़ बहुत सहेज के लिखने पड़ेंगे मुझे। क्योंकि उनकी छाप मेरे ही जीवन पर पड़ेगी, उनका ज़िक्र मेरे ही ज़हन में होगा। उनके निशान मेरे ही जिस्म पर दिखेंगे। आंसू का तो पता नहीं वो मुस्कराहट कायम रहनी चाहिए। प्यार हासिल हो न हो, वो विश्वास कामिल रहना चाहिए। मुकम्मल हो न हो, इश्क़ का जूनून रहना चाहिए।
आँखे बंद की तो खुद पर कुछ गर्व सा हुआ। शायद वहीँ सपना दिल दहला के फिर से नींद खोल दे, पर उस सपने को हँस के फिर से गले लगाने की हिम्मत होनी चाहिए।
सोच कर फिर से पलंग पर बैठ गयी मैं और खुद से पुछा, क्या कर रही थी मैं अपने साथ। किस तरह से जी रही थी। क्या यही अरमान खुद के लिए संजोये थे? क्या यही मंजिल खुद के लिए चुनी थी? क्या यही रुकना चाहती थी मैं?
जहाँ एक तरफ अपने आप से हार चुकी थी, वहीँ दूसरी तरफ झुकना नहीं चाहती थी। जहाँ एक तरफ दिल टूट चुका था, वहीँ उसे संभालना भी चाहती थी। जहाँ एक तरफ वो जा चुका था, वहीँ उसके पास भी जाना चाहती थी। क्या करू, शायद इस बार आगे नहीं बढ़ना चाहती थी, शायद इस बार यही मेरी कहानी थी। यही शुरुवात, यही अंतिम किस्सा था मेरी किताब का।
पर इस किताब को लिख कौन रहा था? मैं या मेरा खुदा ? इस कहानी के पात्र काल्पनिक नहीं व्यक्तिगत थे। इस कहानी के किस्से लिखे नहीं जिए गए थे। हर एक आंसू सच में बहा था, हर एक हँसी खुल के सुनाई दी थी। हर एक बार हाथ पकड़ने से धड़कन बढ़ी थी, सिर्फ पढ़ने वाले की नहीं, पर जीने वाले की भी। फिर इस कहानी का अंत खुशनुमा होना गवारा क्यों नहीं था? इस में दिल टूटने का दर्द भी तो महसूस हुआ था।
पर अब फिर से करवट पलटी, तो ये सोचा। अगले किस्से का तो पता नहीं, पर ये वक़्त बहुत एहम है। टूटे दिल का तो पता नहीं, उसके आगे के पन्ने पर लफ्ज़ बहुत सहेज के लिखने पड़ेंगे मुझे। क्योंकि उनकी छाप मेरे ही जीवन पर पड़ेगी, उनका ज़िक्र मेरे ही ज़हन में होगा। उनके निशान मेरे ही जिस्म पर दिखेंगे। आंसू का तो पता नहीं वो मुस्कराहट कायम रहनी चाहिए। प्यार हासिल हो न हो, वो विश्वास कामिल रहना चाहिए। मुकम्मल हो न हो, इश्क़ का जूनून रहना चाहिए।
आँखे बंद की तो खुद पर कुछ गर्व सा हुआ। शायद वहीँ सपना दिल दहला के फिर से नींद खोल दे, पर उस सपने को हँस के फिर से गले लगाने की हिम्मत होनी चाहिए।
No comments:
Post a Comment